इतिहास, अगर सच है, तो वह केवल आस्था या परंपरा पर नहीं, ठोस साक्ष्यों पर टिकता है। पर भारत के तथाकथित प्राचीन धर्मग्रंथों को लेकर एक विचित्र विसंगति सामने आती है — जितनी ज़ोर से इनके 3,000 वर्ष पुराने होने का दावा किया गया, उतना ही मौन रहा इन दावों के पीछे का भौतिक आधार। जिस काल के ग्रंथों ने मिस्र, यूनान और रोम को अमरता दी, उनकी स्याही आज भी संग्रहालयों में जीवित है। लेकिन भारत की ज्ञान परंपरा — जो स्वयं को कालातीत बताती है — वह अचानक इतिहास के पन्नों से ऐसे ग़ायब हो जाती है मानो वह केवल स्मृति में ही रही हो। जब सवाल पूछे जाते हैं, तो जवाब में दस्तावेज़ नहीं, किंवदंतियाँ मिलती हैं; जब प्रमाण माँगे जाते हैं, तो प्रत्यक्ष नहीं, मौखिक दावे सामने आते हैं। ऐसे में यह जाँचना जरूरी हो जाता है — क्या हमारे शास्त्र वास्तव में प्राचीन हैं, या फिर उन्होंने आधुनिक काल में एक नया जन्म लिया, जिसे हमने भूल से सनातन मान लिया?
धार्मिक ग्रंथ 3000 वर्ष पुराने हैं, पर क्या यह सच है?
हर प्रमुख सभ्यता अपने पीछे कुछ न कुछ ठोस छोड़ गई है — चाहे वह पत्थरों पर लिखे शिलालेख हों, चर्मपत्र पर लिखे ग्रंथ हों, मुहरें हों या मंदिरों की दीवारों पर उकेरी कहानियाँ। मिस्र, यूनान और रोम जैसी संस्कृतियों के प्राचीन ग्रंथ आज भी संग्रहालयों में उपलब्ध हैं — पढ़े जा सकते हैं, छुए जा सकते है, दिनांकित किए जा सकते हैं और इतिहास से जोड़े जा सकते हैं।
इसके विपरीत, भारत की उन तथाकथित “प्राचीन” धार्मिक ग्रंथों — जैसे वेद, रामायण, महाभारत — के लिए ऐसा कोई भौतिक प्रमाण नहीं मिलता जो उन्हें 3,000 वर्ष पुराना सिद्ध कर सके। न कोई मूल पांडुलिपि, न कोई शिलालेख जिसमें इन ग्रंथों के श्लोक खुदे हों, और न ही कोई ताम्रपत्र जो उनके अस्तित्व को उस काल से जोड़ता हो। यह एक गंभीर ऐतिहासिक शून्यता है।
इन ग्रंथों को मुख्यतः ताड़पत्र या भोजपत्र पर लिखा जाता था — जो भारत की आर्द्र जलवायु में 50–150 वर्षों से अधिक टिकते नहीं। फिर भी, इन ग्रंथों को हजारों वर्षों तक एक जैसे बने रहने का दावा किया जाता है — बिना किसी ठोस भौतिक साक्ष्य के। यह स्थिति गंभीर संदेह को जन्म देती है।
भारत में अब तक खोजे गए पुरातात्विक स्थलों में न तो किसी प्राचीन गुरुकुल के अवशेष मिले हैं, न किसी शिलालेखीय पाठशाला के प्रमाण, न ही कोई ऐसा अभिलेखीय केंद्र जो वेदों को सहस्त्राब्दियों तक सुरक्षित रखता रहा हो।
रामायण और महाभारत की कोई भी प्रमाणिक, दिनांकित पांडुलिपि प्रारंभिक मध्यकाल से पहले की नहीं मिलती। यहाँ तक कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के अशोक के शिलालेखों में भी न रामायण, न महाभारत, और न ही वेदों का कोई स्पष्ट उल्लेख मिलता है।
ऐसे में यह दावा कि ये ग्रंथ निरंतर 3,000 वर्षों से लगातार चले आ रहे हैं, भौतिक प्रमाणों के अभाव में गलत प्रतीत होता है। जब किसी ऐतिहासिक कथन के पक्ष में कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य न हो, तो उस पर शक होना आवश्यक हो जाता है।
क्यों भारतीय ग्रंथों की कथाएँ ग्रीक, रोमन और मिस्र की पुराण-कथाओं से हु-बहु मिलती है?
ऋग्वेद में सृष्टि और देवताओं की उत्पत्ति का वर्णन वैसा ही है जैसा ग्रीक ग्रंथ Theogony में किया गया है — दोनों में ब्रह्मांड की रचना और देवताओं के वंश क्रम की कहानी मिलती है।
उपनिषदों में आत्मा, पुनर्जन्म और मोक्ष जैसे विषयों की चर्चा प्लेटो के Dialogues और मिस्र के Book of the Dead से मिलती-जुलती है — सभी ग्रंथ आत्मिक यात्रा और मृत्यु के बाद जीवन को लेकर गहरे दर्शन प्रस्तुत करते हैं। भगवद गीता में कर्तव्य, आत्मनियंत्रण और संतुलन की जो शिक्षा दी गई है, वह रोमन दार्शनिक Cicero की ‘On Duties’ और स्टोइक ग्रंथों जैसे Epictetus की ‘Enchiridion’ से मिलती है। रामायण और महाभारत में महायुद्ध, पारिवारिक टकराव, और दिव्य हस्तक्षेप की कहानियाँ हैं, जो हूबहू ग्रीक कवि होमर की Odyssey और Iliad में भी देखने को मिलती हैं। कृष्ण की लीलाएं — चमत्कार, प्रेम, संगीत और मस्ती — ग्रीक देवता Dionysus से मिलती हैं, जो संगीत और आनंद के देवता हैं। समुद्र मंथन की कथा, जिसमें देवता अमृत प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं, ग्रीक Titan युद्धों और नॉर्स कथाओं के Mead of Poetry जैसी है, जहाँ देवताओं के बीच अमरता और शक्ति के लिए संघर्ष होता है।
इन कथाओं में केवल घटनाएं ही नहीं, बल्कि पात्रों में भी समानताएँ हैं:
इन्द्र ग्रीक के Zeus, रोमन के Jupiter, और नॉर्स के Thor से मेल खाता है — सभी आकाश और बिजली के देवता हैं। वरुण की भूमिका समुद्र के देवता Poseidon (ग्रीक) और Neptune (रोमन) जैसी है।
अग्नि देवता ग्रीक के Hephaestus और Hermes से मिलते हैं। यम की तुलना Hades (ग्रीक), Pluto (रोमन), और Anubis (मिस्र) से की जाती है — सभी मृत्यु और पाताल के अधिपति हैं। सूर्य देवता ग्रीक के Apollo, मिस्र के Ra और रोमन के Sol के समकक्ष हैं। चन्द्र देवता ग्रीक की Selene और रोमन की Luna जैसे चंद्रमा से संबंधित देवियों के समान हैं। शिव में Hades, Dionysus (ग्रीक), और Odin (नॉर्स) जैसी रहस्यमयी, विनाशकारी और ध्यानमग्न शक्तियाँ देखी जाती हैं। विष्णु की भूमिका ग्रीक के Zeus और रोमन के Jupiter की तरह है — ब्रह्मांड की रक्षा करने वाले देवता। गणेश का रूप Janus (रोमन) जैसा है — आरंभ के देवता, मार्ग के रक्षक और बाधा हटाने वाले।
इन सभी समानताओं से यह स्पष्ट होता है कि यह केवल संयोग नहीं हो सकता। यह साझा सांस्कृतिक कथाओं, कथानक संरचनाओं और संभवतः एक ही स्रोत की ओर इशारा करता है।
पश्चिमी ग्रंथ आज भी सुरक्षित हैं — हमारे क्यों नहीं?
यह बात चौंकाने वाली है — मिस्र ने अपने धार्मिक ग्रंथ 4,000 साल पहले पत्थरों पर लिख दिए, और वे आज भी सुरक्षित हैं, पढ़े जा सकते हैं। यूनान ने इलीयड और ओडिसी जैसे ग्रंथ रचे और उन्हें बार-बार लिखा गया, इसलिए वे आज तक बचे हैं | रोमनों के लिखे ग्रंथ आज भी सुरक्षित हैं — चर्मपत्रों में, काँच के बक्सों में रखे, दस्ताने पहनकर पढ़े जाते हैं। उनके पास अपने लेखन का असली सबूत है।
लेकिन भारत? जिसे हम ऋषियों की भूमि और ज्ञान का भंडार मानते हैं? वहाँ हम उम्मीद करते हैं कि कहीं ताड़पत्रों के ढेर मिलेंगे, मंदिरों पर श्लोक खुदे होंगे, ताम्रपत्रों पर ग्रंथ गाए जा रहे होंगे — लेकिन हकीकत में कुछ नहीं मिलता। बस एक खालीपन — जिसे हम मौखिक परंपरा की आरामदायक कहानी से ढकने की कोशिश करते हैं।
जो संस्कृति 3,000 साल पुराने ग्रंथों का दावा करती है लेकिन पहले दो हज़ार वर्षों से एक भी प्रमाणिक पन्ना नहीं दिखा सकती — वह प्राचीन नहीं— उसने अपनी प्राचीनता की कल्पना ही कर ली है।
संस्कृत का भ्रम: एक भाषा जो जनसामान्य की कभी नहीं थी
बताया गया कि संस्कृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा है। कहा गया कि वेद इसी में रचे गए, उपनिषद इसकी गोद में जन्मे, गीता ने इसकी साँसों में गति पाई। लेकिन एक प्रश्न उठता है — अगर यह भाषा इतनी जीवंत थी, तो कोई इसे बोलता क्यों नहीं था? इतिहास में कोई एक भी गाँव नहीं, जहाँ बच्चे संस्कृत में रोए हों, माँओं ने संस्कृत में लोरी दी हो। यह कभी आम लोगों की भाषा नहीं थी — यह सिर्फ़ धार्मिक ग्रंथों और यज्ञों की भाषा थी।
और रही बात मौखिक परंपरा की ! हज़ारों वर्षों तक बिना लिखे, लाखो श्लोक वैसे के वैसे ही स्वरूप में बने रहे — यह सिर्फ़ दो ही तरीकों से संभव है: या तो चमत्कार हुआ हो, या उन्हें यहाँ हाल ही में पैदा किया हो ।
अब तुलना कीजिए यूनान की ग्रीक भाषा या रोम की लैटिन से — दोनों आम जन की भाषाएं थीं, रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ज़िंदा रहीं, बदलती रहीं। संस्कृत तो शुरू से ही व्याकरण की हथकड़ी में बंद थी जो कभी सांस नहीं ले सकी, उसे “जीवित परंपरा” कहना मज़ाक करने जैसा है।
तो फिर भारतीय ग्रन्थ कहाँ से आये?
भारतीय धार्मिक ग्रंथों के पहले मुद्रित संस्करण केवल 18वीं–19वीं शताब्दी में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान ही सामने आए। ग्रीक और लैटिन में दक्ष ब्रिटिश अधिकारी और यूरोपीय विद्वान, जैसे सर विलियम जोन्स, एच. टी. कोलब्रुक (Henry Thomas Colebrooke), और मैक्स मूलर (Max Müller) ने भारतीय ग्रंथों को एकत्र करने और व्यवस्थित करने के लिए Oriental Societies की स्थापना की। प्रमुख संस्थानों में Asiatic Society of Bengal (1784) और Royal Asiatic Society (London, 1823) शामिल हैं। इन ग्रंथों के स्रोत मौखिक परंपराओं, बिखरी हुई पांडुलिपियों और क्षेत्रीय संस्करणों में थे, जिन्हें औपनिवेशिक काल में एकसार करने की कोशिश की गई। उस दौर में स्थानीय पंडितों द्वारा संस्कृत ग्रंथों को स्मृति के आधार पर दोबारा लिखा गया।
Fort William College Press, Seram pore Mission Press, और Calcutta Sanskrit Press जैसे प्रेसों से इन संकलित ग्रंथों का मुद्रण शुरू हुआ। यह पहला मौका था जब इन ग्रंथों को “एक समान संस्करण” में प्रकाशित किया गया।
गीता प्रेस, गोरखपुर, जिसकी स्थापना 1923 में हुई, ने इन मुद्रित ग्रंथों को आम जनता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई। हालांकि यह संस्था औपनिवेशिक शासन के अंत की ओर सक्रिय हुई, लेकिन इसका कार्य उसी परंपरा का विस्तार था — जहाँ ग्रंथों को एकरूपता और व्यवस्था के साथ प्रस्तुत किया गया।
इसके समानांतर, Theosophical Society (Adyar, 1875) ने भी भारत में प्राचीन ग्रंथों को “अध्यात्मिक ज्ञान” के रूप में पुनर्परिभाषित करने का प्रयास किया | थियोसोफिकल सोसाइटी अडयार के प्रभाव ने आधुनिक भारत के अनेक आध्यात्मिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक आंदोलनों को पैदा किया – बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU), कलाक्षेत्र फाउंडेशन (भरतनाट्यम, भारतीय संगीत व नाट्य कला का प्रचार), ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, राधास्वामी सत्संग (दया बाग़ और ब्यास शाखाएँ), ब्रह्म कुमारी, अरविंद आश्रम (श्री अरविंद), वेदांत सोसायटी (Vivekananda Vedanta सोसाइटी, जे. कृष्णमूर्ति, गीता प्रेस गोरखपुर।
इन संस्थानों ने जो ग्रंथों के संस्करण तैयार किए, वे आज “असली” या “प्रामाणिक” माने जाते हैं। लेकिन ये ग्रंथ किसी हजारों साल पुरानी परंपरा से नहीं, बल्कि करीब 200–250 साल पहले आधुनिक प्रेस, संपादन और ब्रिटिश राज के हिसाब से नए मटेरियल से लिखे गए हैं।
जिसे प्राचीन परंपरा समझा गया — वह एक ब्रिटिश राज का सुनियौत माइंड गेम था
“अगर कोई तुम्हारी आत्मा की कहानी लिखे, और वह शत्रु हो — तो क्या वह कहानी तुम्हारी आत्मा की ही होगी?”
ओरिएंटल सोसायटीज़ – विलियम जोन्स, मैक्समूलर, अलेक्ज़ेंडर कनिंघम —ये सब वे लोग थे जो भारत को जानने नहीं, भारत पर नयी पहचान का लेबल लगाने आये थे | भारत को सीखने नहीं, ढालने आए थे — एक ऐसे साँचे में जो आने वाले ३००- ४०० सालो में जो यूरोपीय चेतना के नक़्शे कदम पर चलने लायक बना रहे |
उन्होंने कहा — “हम भारतीय संस्कृति को संरक्षित कर रहे हैं।” लेकिन सच्चाई यह थी कि वे सब कुछ नया गढ़ रहे थे।
आज जिसे हम ‘सनातन ‘ मान बैठे है, वह ब्रिटिश राज के किसी क्लर्क की टेबल पर एडिट किया गया, और किसी अंग्रेज़ की प्रेस में छप के ‘अमर’ बनाया गया है
भारत 1947 में आजाद भले ही हो गया हो, लेकिन अपनी सोच और आत्मा को आजाद करना भूल गया। राजनीतिक आज़ादी तो सिर्फ़ एक दिखावा था — असली गुलामी तो विचारों, भाषा और पहचान पर कब्ज़ा करने में थी, जो आज भी जारी है। अंग्रेज़ी, जो कभी विदेशी शासन की भाषा थी, अब सत्ता, सफलता और प्रतिष्ठा की पहचान बन चुकी है। आज भी सब अंग्रेज़ी में सोचते हैं, संस्कृत के मंत्र ऑक्सफोर्ड से प्रमाणित करवाते है।
ब्रिटिशों ने सिर्फ़ हमारी ज़मीन पर नहीं, हमारे ज़मीर पर राज किया, हमारी कल्पनाओं को बदला। उन्होंने खेतों को नहीं, ख्वाबों को उपनिवेश बना लिया। और जब तक हम अपनी सोच किसी और की भाषा में करते रहेंगे, और अपने मूल्यांकन के लिए पश्चिम की स्वीकृति की ओर ताकते रहेंगे — तब तक उनका साम्राज्य समाप्त नहीं हुआ होगा । बस उसके चेहरे और तरीक़े बदलते जायेंगे।
प्रशांत कुलश्रेष्ठ आदि किसान रिसर्चर
