शहर और उद्योग अपने आरंभिक काल से अब तक पलायन पर ही टिके हुए हैं
मतलब आप खुद ही सोचें अगर पलायन शहरों की ओर नहीं होगा, तो फैक्ट्रियों में काम करने वाले से लेकर बंदरगाह के कुली तक और शहर में खोमचा और रिक्शा चलाने वाले कहाँ से आएँगे…..
अक्सर आपके आस-पास के इलाके में भी होता होगा कि लोग अपने गांव के खेत या इलाके में काम नहीं करना चाहते हैं, बल्कि वहाँ से सैकड़ो किलोमीटर दूर किसी शहर में जाकर किसी भी तरह का काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं….
विस्थापन की यह प्रवृत्ति कैसे बनी, इस निर्माण प्रक्रिया में ही कृषि का विनाश टिका है, और यह दुनिया के हर देश में हुआ है. जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका सभी में यह हाल रहा है. अमेरिका का आलू और चावल का किसान हो या फ्रांस का गेंहूँ व मोटे अनाज का उत्पादक किसान सबने इसकी मार झेली है.
फर्क इतना है कि पूँजी आधारित सरकार होने कारण वहाँ किसानों को मुआवजे के रूप में सब्सिडी मिल जाती है. जो भारत में तथाकथित नौकरी करने वाले लोग टैक्स पेयर की भीख समझते हैं, जो की है नहीं, क्योंकि भीख तो नौकरी होती है, जिसे बड़ी जनता से मिले अप्रत्यक्ष कर, जिसमें सबसे अधिक किसान शामिल है, के पैसों से दिया जाता है.
मनरेगा कहा गया था कि कृषि मजदूरों की दशा सुधारने के लिए आया है जबकि अगर इसकी आज तक की प्रक्रियाओं का विश्लेषण कीजिए तो यह कृषि को अति महंगा करने और छोटे व मझोलो किसानों को सीधे विस्थापित करने के लिए चली गई एक चाल थी. जीवन स्तर ऊँचा उठाने का मतलब शहर और गाँव के लिए अलग होता है. मॉल में फिल्म देखना लिविंग स्टैंडर्ड का इश्यू है परंतु गांव के लिए नहीं.
दो परमाणु युद्ध और लगातार भूकंप की विभीषिका झेलने वाला जापान मिजी रेस्टोरेशन जैसे कृषि सुधार से आज किस ऊँचाई पर खड़ा है, यह बताने की जरूरत नहीं है.
लेकिन हम उदाहरण लेंगे तो अमेरिका का. विस्थापन बढ़ाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, और
हाँ विस्थापन की शुरूआत नेहरू ने की थी और मोदी उसको बढ़ाए जा रहे हैं, अंतर तो कोई नहीं है.
सिवाय इसके की पहले बकरे को पकड़ कर काटा जाता था. अब बकरा कसाई के प्रति भक्ति में कट जाता है… खैर..
हरिशंकर शाही आदि किसान रिसर्चर
